“नशेब-ओ-फ़राज़” का मतलब है “उतार-चढ़ाव”.
इस क़िताब का उन्वान, “ज़र्रा” की एक नज़्म “नशेब-ओ-फ़राज़” पर रक्खा गया है जिस में ज़िंदगी के सफ़र की दास्तान है. पर देखा जाए तो हर शेर हर कलाम ही ज़िंदगी का कोई ना कोई क़िस्सा सुनाता है.
इस क़िताब में 111 कलाम हैं जो सुश्रुत पंत “ज़र्रा” के पिछले 15 सालों की ग़ज़लों और नज़्मों का इंतिख़ाब है. इस दौरान ये पांच मुल्कों में रहे – भारत, अमेरिका, सिंगापुर, विएत्नाम और नाइजीरिया. यहां पर ये मुख़्तलिफ़ तज्रुबात और हालात से गुज़रे और उन से जो एहसासात पैदा हुए वो अशआर के पैकर में ढल कर ग़ैब से वजूद में आ गए.
इस क़िताब की लिपि देवनागरी और ज़बान हिंदुस्तानी है जिसमें हिंदी-उर्दू की के मिले-जुले अल्फ़ाज़ मिलते हैं. इसकी ग़ज़लों और नज़्मों में आप ज़िंदगी के अलग-अलग पहलुओं से जुड़े एहसास, जज़्बे, सवाल और जवाब पाएंगे.
इस क़िताब के कुछ चुनिंदा अशआर इस तरह से है:
कुछ इस तरह मेरे दिल का निज़ाम हो जाये
जहाँ क़याम हो मेरा मक़ाम हो जाये
दर पे दस्तक सी हुई घर से निकलने के लिेए
वक़्त है आन पड़ा वक़्त बदलने के लिेए
मैं रहनुमा के कहे रास्तों से दूर रहा
मेरा मक़ाम सदा मंज़िलों से दूर रहा
अपनी परवाज़ को जब थाम लिया है हम ने
आसमानों को तह-ए-दाम लिया है हम ने
ना जाने कितने नशेब-ओ-फ़राज़ से गुज़रे
कोई मक़ाम कहीं भी मगर कहाँ पाया
गिरे तो ऐसे गिरे तह को पार कर बैठे
उठे तो ऐसे उठे तंग आसमां पाया
उम्मीद है कि आप “ज़र्रा” के नशेब-ओ-फ़राज़ में दो क़दम साथ चलना गवारा करेंगे.