जहाँ तक मुझे याद है, पहला शे’र बचपन में दादाजी से सुना था और बहुत पसंद आया था। साथ ही कविता में भी रुचि हुई दादीजी की वजह से, जो एक अच्छी कवयित्री थीं और उनके प्रोत्साहन से मैं लिखने की कोशिश करने लगा। ये क़िताब स्वर्गीय दादा-दादी को सादर समर्पित है।
मैंने पहली बार शे’र जैसा कुछ कहा था कॉलेज में। अब वो दौर ही ऐसा होता है कि दिल शायराना हो जाता है! फिर बड़े शोरा का कलाम पढ़ा और नामी मौसीकारों की गाई ग़ज़लें सुनीं, जिससे पूरी तरह शायरी का असीर हो गया। मगर उसके कई साल बाद ये इल्म हुआ कि शायरी में कई तकनीकें और नियम हैं। तब ‘ऑनलाइन-दश्त-ए-जुनूं’ की नवर्दी करते हुए बहर, वज़्न, काफ़िये, रदीफ़ वगैरह की जानकारी इकट्ठा की। साथ ही शायरी में इस्तेमाल होने वाले अल्फ़ाज़ और और उनके तलफ़्फ़ुज़ को समझने की कोशिश भी करने लगा। ये कोशिश अभी भी जारी है और ता-उम्र रहेगी।
ये सच है कि मेरे व्यावसायिक और सामाजिक दायरे में दूर-दूर तक शायरी मौजूद नहीं है; मगर मार्केटिंग, जो मेरा पेशा है, उससे मुझे वो खाद भी मिलती है जिससे शायरी के गुलशन में फूल उगाए जा सकते हैं। मार्केटिंग का एक पहलू इंसानी सोच और जज़्बात से तअल्लुक़ रखता है और ये भी एक ज़रिया है जिससे मैं ज़िंदगी की हक़ीक़तों से जुड़ा रहता हूँ। इसके अलावा, मेरा रोज़गार मुझे अलग-अलग शहरों और मुल्कों में ले गया है, जिससे मेरी फ़िक्र के दायरे वसीअ हुए हैं और ये एहसास भी हुआ है कि लोगों और समाजों में जितनी तफ़ावतें हैं, उससे ज़ियादा शबाहतें हैं। एक और बात, इन तजरबात से मेरी शायरी में “सफ़र” का मौज़ू रह-रहकर आने लगा जो देश-विदेश की सिहायत का आइना भी है और दिल की अंदरूनी मसाफ़तों का अक्स भी।
ज़र्रा का अर्थ है “कण” या “पार्टिकल”! मैं खुद को वाक़ई ज़र्रा समझता हूँ, शायरी के लिहाज़ से भी और ज़िंदगी के लिहाज़ से भी। मगर ये एहसास-ए-कमतरी नहीं है क्यूँकि ये भी सच है कि “ज़र्रा” ज़मीन से भी जुड़ा रहता है और आफ़ताब होने का इमकान भी रखता है। तो इस हिसाब से इस लफ्ज़ का किरदार मुझे बहुत पसंद आया और मैंने ख़ुद को इसे सौंप दिया।
इस सवाल के अंदर भी दो सवाल हैं :
(i) क़िताब अब तक क्यूँ नहीं आई?
(ii) क़िताब अब किसलिए आ रही है?
सबसे पोशीदा रखा अपना हुनर
बस इसे तैयार करते ही गए
मैं अपनी शायरी से कभी मुतमइन नहीं रहा। हमेशा लगा कि ये किसी लायक नहीं है और हर बार यही सोचा कि इसे ज़रा और निखार लूँ, फिर छपवाऊँ। मगर कुछ दोस्तों की नेक सलाहों से समझ आया है कि बेहतरी तो एक मुसलसल काविश है, जो ज़िंदगी भर चलती रहेगी। फिर कुछ अदबी मंचों से मिली हौसला-अफ़ज़ाई से भी हिम्मत बँधी कि मेरा क़लाम शाए करने लायक़ है शायद। साथ ही ये भी लगा कि किताब छपवाने की प्रक्रिया से भी सीखने को मिलेगा और लिखने के जोश में और इज़ाफ़ा होगा।
इस सोच को अमल में लाने का मौक़ा मिला कोरोना काल के लॉकडाउन के दौर में। तब फ़ुरसत भी थी और सोशल मीडिया में शायरी का माहौल भी गर्मा गया था। मैंने तब किताब पर काम करना शुरु कर दिया और उस कोशिश का अंजाम आपके हाथ में है।
किताब का उन्वान “नशेब-ओ-फ़राज़” अपनी एक नज़्म पर रखा है जो इस किताब के आख़िर में है। वैसे भी, मेरा सारा कलाम ज़िंदगी के नशेब-ओ-फ़राज़ (उतार-चढ़ाव) का ही तो बयान है।
इस क़िताब में पिछले 15 सालों में कही मेरी ग़ज़लों और नज़्मों का इंतिख़ाब है। इस दौरान मैं 5 मुल्कों में रहा था और अलग-अलग इम्तिहानों से गुज़रा था, जिनका असर मेरे कलाम में महसूस किया जा सकता है।
इसमें आपको चंद तरही कलाम भी मिलेंगे जो बड़े शोरा की ज़मीन और मिसरों पर कहे गए हैं। ये जसारत उन्हें ख़िराज पेश करने के सबब से और उनसे सीखने की ग़रज़ से की गई है। अपने कलाम के बारे में अब और कुछ न कहते हुए उस पर राय क़ायम करने का काम आपके ज़िम्मे करता हूँ।
तो चलिए, मेरे “नशेब-ओ-फ़राज़” अब आप की अमानत हैं! बहुत शुक्रिया मेरी क़िताब को मौक़ा देने का और आपकी राय का मुझे इंतज़ार रहेगा।